Monday, July 7, 2014

POETRY: पगडंडियाँ (On To Unfamiliar Roads)







हुत दूर गये, यूँ ही चलते चलते
सोचा, और कुछ दूर तलाक़ जाए
तो शायद तेरे कदमों की आहत पीछे से आती हुई
पर वो तो बस हवा का शोर है..

इतने टीले पार करे, के अब यह शेहेर अलग सा है
नये पुराने मकानो के बीच वो एक गली जो हमारा है
कहाँ मिलेगी अब वो चाए की चुस्की और तुम्हारी हसी
मेरे गोद मे लेते तुम्हारे हर साँस की महक

कौन बुलाएगा मेरे नाम को सौ अलग तरीक़ो से
पर हर बार कुछ और प्यारा, कुछ ख़ास जो लगे मुझे?
शायद इतनी डोर गयी हू, इन पगडंदियों मे से एक चुन्ँके आगे बढ़ने के अलावा, कोई वजह ना तलब रहा

हाँ, यह कोई मरने की वजह तो नही
पर जीना अब कुछ अधूरा सा है
पूरी कर दे ऐसी वो बाअतएं, ऐसी वो यादें
अब बस कहानियाँ..क़िस्सो सा है..

जुब मूड के देखा तो सूनी ज़मीन पे
मेरे ही कदमों के निशान थे
ना तुम थे ना तुम्हारे वो वादे

तब लगा, बहुत दूर गये यूँ ही चलते चलते...